रूस और यूक्रेन जंग, महँगाई और भारत का रूस से तेल खरीद सौदा (Russia and Ukraine war, inflation and India's oil purchase deal with Russia)
रूस और यूक्रेन जंग, महँगाई और भारत का रूस से तेल खरीद सौदा
(Russia and Ukraine war, inflation and India's oil purchase deal with Russia)
रूस ने यूक्रेन पर 24 फ़रवरी 2022 को हमला किया | इस हमले से यूक्रेन में हुई बर्बादी की दास्ताँ किसी से भी छिपी नहीं है | रूस और यूक्रेन के बीच चल रही जंग का विश्लेषण हम आगे करेंगे हमले की वजहों को लेकर लोगो के अलग अलग तर्क हो सकते है किसी भी वजह और तर्क की बिना पर इंसानो के कतलेआम को सही नहीं ठहराया जा सकता है फिर चाहे वो सीरिया हो, अफ़ग़ानिस्तान हो, मयंमार हो, फ़िलिस्तीन या फिर यूक्रेन हो |
22 मार्च 2022 की UN की रिपोर्ट्स के मुताबिक़ अब तक 36 लाख लोग यूक्रेन छोड़ कर पड़ोसी मुल्कों में शरण ले चुके हैं शरण लेने वालों देशों में सबसे ज़्यादा पोलैंड में क़रीब 21,44244, रोमानिया में 555,021 , मोल्दोवा में 371,104, हंगरी में 324,397, रूस में 271,254, स्लोवाकिया में 256,838 बेलारूस में 4,938 और अन्य युरपीयन देशों में लोगों ने शरण ली है
क्या है रूस-यूक्रेन संकट: रूस ने यूक्रेन पर हमला क्यों किया ?
रूस और यूक्रेन की जंग ने पूरी दुनिया को संकट में डाल दिया है आख़िर वलदमिर पुतिन ने यूक्रेन पर हमला क्यों किया इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें इतिहास को पढ़ना होगा
यूक्रेन पहले सोवियत संघ का हिस्सा था 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद यूक्रेन ने अपनी स्वतंत्रा की घोषणा की |1994 में रूस ने एक समझौते पर हस्ताक्षर करते हुए यूक्रेन की स्वतंत्रता और संप्रभुता का सम्मान करने पर सहमति जताई थी. यूक्रेन की सीमा, पश्चिम में यूरोपीय देशों और पूर्व में रूस के साथ लगती है. हालांकि पूर्व सोवियत संघ का सदस्य और आबादी का क़रीब छठा हिस्सा रूसी मूल का होने के चलते यूक्रेन का रूस के साथ गहरा सामाजिक और सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है.
रूस की सीमा से लगे एक समरध्य, आधुनिक, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक यूरोपीय देश के अस्तित्व को रूस के निरंकुश शासन के लिए ख़तरा माना जाता रहा है यदि यूक्रेन के नेता अन्य पश्चिमी लोकतंत्रो की तर्ज़ पर अपने देश को पूरी तरह सुधारने में सफल रहे तो ये एक पूर्व सोवियत संघ के लिए बुरी मिसाल क़ायम करेगा और रूसियों के लिए एक उदाहरण के रूप में काम करेगा, जो एक अधिक लोकतांत्रिक देश चाहते है
पुतिन ये भी मानते है की पश्चिमी लोकतंत्र कमज़ोर स्थातिथी में है रूस को लगा की ये प्रमुख सैन्य अभियान शुरू करने का उपयुक्त समय है | ये युद्ध वास्तव में 2013-2014 में यूक्रेन के सम्मान को लेकर क्रांति के बाद शुरू हुआ जिसे यूरो मैदान भी कहा जाता है जब यूरोप के साथ घनिष्ट्य सम्बंध चाहने वाले नागरिकों के व्यापक प्रदर्शन के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानकोविच को हटा दिया था यानकोविच ने विरोध को दबाने के लिए रूस से मदद माँगी थी |
रूस ने अवैध रूप से क्रिमिया पर क़ब्ज़ा करके जवाब दिया क्रिमिया यूक्रेन का वो हिस्सा था जो कला सागर पर रूसी सीमा के पास है रूस ने यूक्रेन के पूर्व में डोनोत्सक और लोहाँसक में बड़े पैमाने पर रूस समर्थक अलगावादियों के समर्थन में सैन्यकर्मियों, भाड़े के सैनिकों और अन्य संसाधनो की आपूर्ति की | डोंबस में 2014 से अब तक की लड़ाई में यूक्रेन के 14 हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गये है | सोवियत संघ के टूटने के समय क्रिमिया यूक्रेन का एकमात्र हिस्सा था जिसमें रूसियों का मामूली बहुमत था फिर भी 44 प्रतिशत आबादी ने यूक्रेन की स्वतंत्रा के लिए मतदान किया था |
दोनों देशों के बीच टकराव टालने के लिए 'मिंस्क शांति समझौता' भी हुआ, लेकिन उसके बाद भी दोनों देशों का टकराव ख़त्म नहीं हुआ. 2001 में अंतिम जनगणना के अनुसार स्वतंत्र यूक्रेन के 17.3 प्रतिशत लोगों ने ख़ुद को जातीय रूसी के रूप में पहचाना ये 1989 से लगभग 5 प्रतिशत अंक की गिरावट थी जो सोवियत संघ के टूटने के बाद रूसियों के पलायन को आंशिक रूप से दर्शाता है
अब पुतिन दावा कर रहे हैं कि यूक्रेन का गठन कम्युनिस्ट रूस ने किया था. पिछले साल एक लंबे आलेख में उन्होंने रूसी और यूक्रेनी लोगों को 'समान राष्ट्रीयता वाला' बताया था. उस आलेख में पुतिन ने यह भी कहा कि यूक्रेन के मौजूदा नेता 'रूस विरोधी प्रोजेक्ट' चला रहे हैं. यूक्रेन कभी एक पूर्ण देश था ही नहीं. उन्होंने यूक्रेन पर पश्चिमी देशों के हाथों की कठपुतली बनने का भी आरोप लगाया था. माना जाता है कि अलगाववादियों के प्रभाव वाले लुहान्स्क और दोनेत्स्क इलाक़ों पर अब तक अपने समर्थकों के ज़रिए अप्रत्यक्ष रूप से रूस ही शासन कर रहा है.
पुतिन के इन इलाक़ों को आज़ाद क्षेत्र की मान्यता देने का एलान करने का मतलब यह है कि रूस पहली बार क़ुबूल कर रहा है कि उसके सैनिक उन इलाक़ों में मौजूद हैं. इसका मतलब यह भी है कि रूस अब वहां अपने मिलिटरी बेस बना सकता है. मिन्स्क समझौते के अनुसार, यूक्रेन को उन इलाक़ों को विशेष दर्जा देना था, लेकिन रूस की कार्रवाई के चलते अबऐसा शायद ही हो पाएगा. हालात इसलिए भी ख़तरनाक माने जा रहे हैं क्योंकि विद्रोही केवल दोनेत्स्क और लुहान्स्क के क़ब्ज़े वाले इलाक़ोंपर ही नहीं, बल्कि पूरे राज्य पर अपना दावा कर रहे हैं.
व्लादिमीर पुतिन ने भी अपने बयान में कहा, "हमने उन्हें मान्यता दे दी है. इसका मतलब यह है कि हम उनके सारे दस्तावेज़ को मान्यता दे रहे हैं." रूस काफ़ी वक़्त से यूक्रेन पर पूर्वी हिस्से में 'जनसंहार' का आरोप लगाकर युद्ध के लिए माहौल तैयार कर रहा था. उसने विद्रोही इलाक़ों में लगभग 7 लाख लोगों के लिए विशेष पासपोर्ट भी जारी किए थे. माना जाता है कि इसके पीछे रूस की मंशा, अपने नागरिकों की रक्षा के बहाने यूक्रेन पर कार्रवाई को सही ठहराना है.
रूस आख़िर यूक्रेन से नाराज़ क्यों हुआ ?
रूस चाहता है कि यूक्रेन न केवल नेटो बल्कि यूरोपीय संघ और यूरोप की अन्य संस्थाओं के साथ भी न जुड़े. नेटो को लेकर रूस की दो मांगे हैं. पहला कि यूक्रेन नेटो का सदस्य न बने और दूसरा कि नेटो की सेनाएं 1997 के पहले की तरह की स्थिति में लौट जाएं. रूस नेटो गठबंधन से कह रहा है कि पूर्व में अब वो अपनी सेना का और विस्तार न करे और पूर्वी यूरोप में अपनी सैन्यगतिविधियां बंद कर दे. इसके लिए रूस एक पुख़्ता और क़ानूनी रूप से मज़बूत भरोसा भी चाहता है.
रूस की इन मांगों को मानने का मतलब होगा कि नेटो को पोलैंड और बाल्टिक देशों एस्टोनिया, लात्विया और लिथुआनिया से अपनी सेनाएं वापस बुलानी होगी. साथ ही, पोलैंड और रोमानिया जैसे देशों में वो मिसाइलें भी तैनात नहीं रख पाएगा. नेटो देशों पर रूस का आरोप है कि वे यूक्रेन को लगातार हथियारों की आपूर्ति कर रहे हैं और अमेरिका दोनों देशों के बीच के तनाव को भड़का रहा है. पुतिन का यह भी तर्क है कि यदि यूक्रेन नेटो का हिस्सा बनता है, तो वह क्राइमिया पर दोबारा क़ब्ज़े की कोशिश कर सकता है. रूस के राष्ट्रपति का मानना है कि पश्चिमी देशों ने 1990 में ये वादा किया था कि पूर्व की ओर नेटो एक इंच भी विस्तार नहीं करेगा, लेकिन इस वादे को तोड़ा गया.
विश्व अर्थव्यवस्था और महंगाई ?
यूक्रेन पर रूस के हमले ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया है। यह विश्व अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ा जोखिम है जो अभी तक महामारी के झटके से पूरी तरह से उबर नहीं पायी है । अभी इस युद्ध में अमेरिका या अन्य देश सीधे तौर पर शामिल नहीं हुए हैं । सीधे युद्ध की जगह अमेरिका और नाटो ने रूस पर प्रतिबंध लगाने का रास्ता चुना है, पश्चिमी देशों द्वारा रूस पर लगाए प्रतिबंधों से रूस की करेंसी और वित्तीय संपत्तियां जर्जर हो रही हैं। साथ ही एनर्जी और फूड की कीमतों में भारी उछाल आ गया है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार 1.5 लाख करोड़ डॉलर की रूस की अर्थव्यवस्था दुनिया की 11वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है ।
ऐसे में वैश्विक स्तर पर तनाव बने रहने और विभिन्न उत्पादों की आपूर्ति बाधित रहने की आशंका है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमत में लगभग 17 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है |रूस दुनिया में हर 10वें बैरल का उत्पादन करता है यूक्रेन में युद्ध से तेल बाजारों में संभावित आपूर्ति में व्यवधान की आशंकाओं ने 2014 के बाद पहली बार कच्चे तेल की कीमतों में 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर की वृद्धि देखी जबकि यूरोपीय प्राकृतिक गैस 62% तक उछल गई ।
इस युद्ध के परिणाम यूरोप में बढ़ती महंगायी से लगाए जा सकते है । यूरोपीय देशों में पेट्रोल, डीज़ल, गैस, कुकिंग ऑल के रेट बढ़ चुके है यूरोप 40 फीसदी नेचुरल गैस, 34 फीसदी तेल और 45 फीसदी कोयले का आयात रूस से करता है । 2008 के मध्य के बाद से गेहूं की कीमतें अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं क्योंकि बाजार ने दुनिया के दो सबसे बड़े निर्यातकों के बीच संघर्ष से अनाज और तिलहन की आपूर्ति पर पड़ने वाले परिणामों का आकलन करना शुरू कर दिया है ।
युद्ध से पहले रूस एनर्जी में बंपर कारोबार कर रहा था । प्रमुख तेल कंपनियों की मदद से प्रतिदिन लाखों बैरल क्रूड आयल का निर्यात कर रहा था । पश्चिमी ब्रांड्स रूस में तेजी से कारोबार कर रहे थे और निवेशक रूस की कंपनियों को कर्ज दे रहे थे । अब भारी-भरकम प्रतिबंधों के चलते बड़े रूसी बैंक अलग-थलग पड़ गए हैं । व्यापारी रूस से क्रूड ऑयल नहीं खरीद रहे हैं । पश्चिमी कंपनियां देश से बाहर निकल रही हैं या अपने कारोबार बंद कर रही हैं। रूसी शेयरों को वैश्विक सूचकांकों से बाहर कर दिया गया है । वहीं, कई रूसी कंपनियों के कारोबार को न्यूयॉर्क और लंदन में रोक दिया गया है ।
तेल की कीमतों पर असर
रूस की अर्थव्यवस्था अपने विशाल ऊर्जा संसाधनों के चलते बाकी दुनिया के लिए बहुत मायने रखती है। प्रतबंधों के चलते क्रूड ऑयल और गैस की कीमतें आसमान छू रही हैं । हालांकि, रूसी क्रूड ऑयल 30 वर्षों से अधिक के सबसे बड़े डिस्काउंट पर ट्रेड कर रहा है, लेकिन खरीदार नहीं हैं । रूस पर लगे वित्तीय प्रतिबंधों से चिंतित विदेशी खरीदारों को शिपमेंट बेचना मुश्किल हो रहा है । टैंकर संचालक काला सागर में जहाजों के लिए जोखिम नहीं उठाना चाहते और प्रमुख वैश्विक तेल कंपनियां देश में परिचालन खत्म कर रही हैं ।
50 साल में सबसे अधिक साप्ताहित उछाल
रूस यूक्रेन संकट के चलते कई कमोडिटीज की कीमतों में 50 साल का सबसे अधिक साप्ताहिक उछाल दर्ज किया गया है । क्रूड ऑयल से लेकर निकल, एल्यूमीनियम और गेहूं की वैश्विक कीमतों में भारी तेजी आई है । इन उत्पादों की कीमतों में साल 1974 के बाद का सबसे बड़ा साप्ताहिक उछाल दर्ज किया गया है । शुरुआती कारोबारी आंकड़ों के अनुसार वैश्विक स्तर पर गेहूं में 41 फीसदी, मक्के में 17 फीसदी, पैलेडियम में 18 फीसदी, सोने में 3 फीसदी, ब्रेंटक्रूड में 15 फीसदी और एल्यूमीनियम में 13 फीसदी का साप्ताहिक उछाल दर्ज किया गया है। रूस और यूक्रेन दोनों गेहूं के वैश्विक उत्पादन में 14 फीसदी हिस्सा रखते हैं। साथ ये कुल गेहूं निर्यात के 29 फीसद की आपूर्ति करते हैं । गेहूं की कीमतें बढ़ने का सीधा असर उपभोक्ताओं पर पड़ रहा है ।
पाम ऑयल कीमतों में भी भारी बढ़ोतरी देखी जा रही है। ब्लैक सी पोर्ट्स पर अटके सूरजमुखी तेल के शिपमेंट का विकल्प नहीं मिलने से इसकी कीमतों में भी भारी इजाफा हो रहा है । कमोडिटीज की कीमतों में यह उछाल वैश्विक स्तर पर महंगाई के संकेत है
विकास दर पर भी खतरा है । ईंधन और हीटिंग पर अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा खर्च करने वाले परिवारों के पास अन्य वस्तुओं और सेवाओं के लिए कम नकदी होगी । गिरते बाजार एक और खिंचाव जोड़ देंगे, धन और विश्वास को प्रभावित करेंगे, और फर्मों के लिए निवेश के लिए धन का दोहन करना कठिन बना देंगे ।
केंद्रीय बैंकरों के लिए, दोहरी चुनौती - कीमतों का प्रबंधन करना और अपनी अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ते रहना - और भी कठिन हो जाएगा । फेडरल रिजर्व और यूरोपीय सेंट्रल बैंक मौद्रिक नीति को सख्त करने के लिए कमर कस रहे हैं । रूस संकट पुनर्विचार को मजबूर कर सकता है । संघर्ष कितना बड़ा झटका देता है, यह वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है, यह इसकी लंबाई और दायरे, पश्चिमी प्रतिबंधों की गंभीरता और रूस द्वारा जवाबी कार्रवाई की संभावना पर निर्भर करेगा । यूक्रेनी शरणार्थियों के पलायन से लेकर रूसी साइबर हमलों की लहर तक, अन्य मोड़ की भी संभावना है ।
रूस और यूक्रेन के युद्ध से भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध से बहुत सी चीजें महंगी हो रही हैं । यह भी माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में हालात और भी बिगड़ सकते हैं । भारत का रूस और यूक्रेन, दोनों के साथ कारोबारी संबंध है । इस युद्ध का गहरा असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर देखा जा सकता है क्योंकि अगर यह लड़ाई तीसरे विश्व युद्ध की ओर बढ़ी तो व्यापारिक गतिविधियों पर नकारात्मक असर पड़ेगा ।
सबसे पहले, कच्चे तेल की कीमत, जो पहले ही 110 डॉलर प्रति बैरल हो गई है, आगे और बढ़ सकती है और यह भारत के लिए प्रतिकूल साबित होगा । देश का आयात खर्च बढ़ेगा जिससे व्यापार घाटा भी और बढ़ेगा । इकोनॉमिक्स के आंकड़ों के अनुसार, भारत ने वर्ष 2020 में यूक्रेन से 1.45 अरब डॉलर का खाद्य तेल आयात किया था । युद्ध शुरू हो जाने से आपूर्ति शृंखला बाधित हो गई है और भारत में खाद्य तेल की कीमत में उछाल आने की आशंका है । इधर, भारत में वर्ष 2020 की तुलना में वर्ष 2021 में खाद्य तेल की कीमत में दोगुनी से भी ज्यादा की वृद्धि हो चुकी है ।
युद्ध की वजह से भारत में सीएनजी की कीमत में 15 से 20 रुपये प्रति किलो तक वृद्धि हो सकती है। ट्रेडिंग अनुमान के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमत में बढ़ोतरी के अनुरूप भारत में भी तेल की कीमत में 15 से 20 रुपये तक की वृद्धि की जा सकती है । उल्लेखनीय है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर प्रति बैरल की वृद्धि से भारत में आयात होने वाले तेल की कुल लागत में लगभग 8,000 से 10,000 करोड़ रुपये की वृद्धि होती है ।
रूस और यूक्रेन की लड़ाई से भारत के तेल आयात का आंशिक रूप से प्रभावित होना तय है और इससे भारत के तेल आयात की लागत में बढ़ोतरी होगी, जिससे देश की विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आ सकती है । हालांकि, भारत के पास अभी पर्याप्त मात्रा में विदेशी मुद्रा का भंडार है, लेकिन अगर युद्ध कुछ और दिनों तक या महीनों तक चलता है, तो उसके लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी । भारत की कुल ईंधन खपत में प्राकृतिक गैस की हिस्सेदारी लगभग छह प्रतिशत है और इसकी आपूर्ति के लिए वह पूरी तरह से आयात पर निर्भर है। भारत लाकर इसे पीएनजी और सीएनजी में परिवर्तित किया जाता है। फिर इसका इस्तेमाल कारखानों, बिजली घरों, सीएनजी वाहनों और रसोई घरों में होता है । घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमत में एक डॉलर की बढ़ोतरी होने पर सीएनजी की कीमत भारत में लगभग पांच रुपये प्रति किलो बढ़ जाती है ।
ऐसे में आम जनता की मुश्किल बढ़ सकती है। अलबत्ता युद्ध के कारण भारत से गेहूं का निर्यात बढ़ सकता है । रूस दुनिया के सबसे बड़े गेहूं निर्यातक देशों में से एक है, जबकि यूक्रेन विश्व में गेहूं का चौथा सबसे बड़ा निर्यातक देश है । दोनों देशों के गेहूं निर्यात को मिला दें, तो यह कुल वैश्विक निर्यात का लगभग एक चौथाई हिस्सा है । वहीं, भारत विश्व में गेहूं उत्पादन के मामले में दूसरा सबसे बड़ा देश है ।
इसलिए, कयास लगाए जा रहे हैं कि जो देश अभी रूस एवं यूक्रेन से गेहूं आयात कर रहे थे, वे अब भारत से गेहूं का आयात कर सकते हैं । रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध जल्द खत्म होता नजर नहीं आ रहा है । ऐसे में भारत की मुश्किलें आगामी दिनों में बढ़ने की आशंका है । खास करके आम भारतीयों के लिए, क्योंकि वे पहले से ही महंगाई से त्रस्त हैं और मौजूदा युद्ध से देश में ईंधन की कीमत के साथ-साथ खाद्य उत्पादों, सब्जियों और अन्य सभी उत्पादों की कीमत में इजाफा होने की आशंका है । तेल की कीमतों में वृद्धि का असर माल ढुलाई पर भी पड़ेगा और इससे खाद्य पदार्थ जैसे सब्जियां, फल, दालें, तेलआदि सभी महंगे होने की संभावना है । यदि मुद्रास्फीति बढ़ती है, तो यह रिजर्व बैंक के अनुमानित आंकड़ों से आगे बढ़ जाएगी और देश के केंद्रीय बैंक को दरों में वृद्धि करने के लिए मजबूर किया जाएगा ।
दुनिया भर का करीब 30 फीसदी गेहूं, 17 फीसदी मक्का और लगभग आधे से अधिक सूरजमुखी के तेल का निर्यात यूक्रेन और रूस से होता है । युद्ध की वजह से दोनों देशों में इन सब चीजों की खेती बहुत अधिक प्रभावित हुई है । और भी चिंता की बात ये है कि 20-30 फीसदी फसल की इस साल युद्ध के चलते बुआई नहीं हो सकेगी । दुनियाभर में खाने की दिक्कत पैदा होने वाली है।
कच्चा तेल महंगा होने समेत गेहूं, सोयाबीन तेल, मक्का जैसी चीजों के दाम भी बढ़ेंगे । बात अगर कच्चे तेल और गैस की करें तो रूस और यूक्रेन से सीधे तो भारत को इन चीजों का आयात बहुत ही कम होता है । लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि भारत करीब 85 फीसदी कच्चे तेल का आयात करता है । वहीं यूरोप 40 फीसदी नेचुरल गैस, 34 फीसदीतेल और 45 फीसदी कोयले का आयात रूस से करता है । यानी वहां पर कच्चा तेल महंगा होगा और इसकी वजह से वैश्विक स्तर पर तेल महंगा होगा, जिसका असर भारत पर भी पड़ेगा । अब अगर कच्चा तेल महंगा होगा तो डीजल-पेट्रोल की कीमतें भी बढ़ेंगी । डीजल महंगा होने का मतलब है कि तमाम खाने-पीने की चीजों का ट्रांसपोर्टेशन महंगाहो जाएगा । यानी महंगाई पर सीधा असर पड़ेगा इसका ।
अगर बात अन्य चीजों की करें तो एशिया और मध्य ईस्ट के देशों को रूस-यूक्रेन गेहूं का जमकर निर्यात करते हैं । दुनिया भर के गेहूं निर्यात का करीब 25-30 फीसदी हिस्सा रूस-यूक्रेन से ही आता है । इसके अलावा दुनिया में सूरजमुखी का तेल 80 फीसदी तक रूस-यूक्रेन से पहुंचता है । भारत में भी खाद्य तेल खपत में 20 फीसदी हिस्सा सूरजमुखी तेल का ही है । यानी इन चीजों के दाम तो बढ़ेंगे ही । गेहूं के दाम तो रेकॉर्ड स्तर पर पहुंच भी चुके हैं ।
जीडीपी ग्रोथ होगी प्रभावित
नोमुरी की रिपोर्ट में कहा गया कि इस स्थिति में भारत, थाइलैंड और फिलीपींस को सबसे अधिक नुकसान होगा । जबकि, इंडोनेशिया को अपेक्षाकृत रूप से फायदा होगा । शुद्ध रूप से तेल आयातक होने के चलते भारत को भी काफी नुकसान होगा, क्योंकि तेल की कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी देखने को मिल रही है । रिपोर्ट मे कहा गया, 'कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी से उपभोक्ताओं और कारोबारों पर काफी बुरा प्रभाव पडे़गा । हमारा अनुमान है कि तेल की कीमतों में प्रत्येक 10 फीसदी उछाल के कारण जीडीपी ग्रोथ में करीब 0.20 पर्संटेज प्वाइंट की गिरावट आएगी ।
बढ़ जाएगी महंगाई
क्वांटइको रिसर्च के अनुसार, भारत के क्रूड बास्केट में 10 डालर प्रति लीटर की बढ़ोत्तरी वित्त वर्ष 2022 के लिए वार्षिक जीडीपी ग्रोथ के अनुमान 9.2 फीसद से 10 आधार अंक की ग्रोथ कम कर सकता है । बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा कि क्रूड बास्केट में 10 फीसद की स्थायी बढ़त WPI आधारित महंगाई में 1.2 फीसद और CPI आधारित महंगाई में 0.3 से 0.4 फीसद की बढोत्तरी कर सकती है ।
आरबीआई को करने होंगे महंगाई को काबू करने के उपाए
नोमुरा ने कहा कि हाल ही में मौद्रिक नीति समिति की बैठक के बाद आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा था कि वित्त वर्ष 2023 में मुद्रास्फीति के 4.5 फीसद रहने का अनुमान है । लेकिन मौजूदा भू-राजनीतिक तनाव की अनुपस्थिति में आरबीआई ने आने वाले महीनों में मुद्रास्फीति के ऊपर जाने के जोखिम को महसूस नहीं किया । अब आरबीआई को महंगाई को काबू करने के लिए कुछ बड़े फैसले लेने पड़ सकते हैं ।
विनिमय दर पर प्रभाव:
यदि रूस-यूक्रेन युद्ध जारी रहता है, तो विनिमय दर भी प्रभावित होगी क्योंकि रुपये में और गिरावट आ सकती है । विनिमय दर पर प्रभाव के कारण भारत का कुल व्यापार खर्च भी बढ़ेगा ।
देश का ऑटो सेक्टर भी प्रभावित होगा ।
युद्ध का असर धातु क्षेत्र पर भी दिखेगा क्योंकि भारत को रूस से अच्छी मात्रा में धातु का निर्यात होता है । अगर रूस पर और प्रतिबंध लगे और धातु के आयात पर रोक लगे तो यह भारत के लिए एक बड़ी समस्या हो सकती है । इसके अलावा, ऑटो सेक्टर की लागत भी बढ़ सकती है और इसका असर वाहनों की कीमतों में वृद्धि के रूप में देखाजा सकता है ।
भारत का रूस से तेल खरीद सौदा |
रूस से आयात-निर्यात के आंकड़े:
रूस से आयात-निर्यात के आंकड़ों पर नजर डालें तो भारत का निर्यात रूस को कुल 550 करोड़ डॉलर और पिछलेसाल रूस से 260 करोड़ डॉलर का आयात हुआ है । 2021 में, रूस में भारत का थर्मल कोयले का आयात 1.6 प्रतिशत से गिरकर 1.3 प्रतिशत हो गया । अब इसके और कम होने की संभावना दिख रही है । इसके अलावा भारत रूस से कच्चा तेल भी आयात करता है । इससे पहले 2021 में भारत ने रूस से 43,000 बीपीडी कच्चे तेल का आयात किया था । रूस से भारत के कच्चे तेल का आयात कुल आयात का केवल दो प्रतिशत है ।
भारत और रूस के बीच क्रूड ऑयल डील को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपनी नाराजगी जताते हुए कहा- भारत हमारा प्रमुख सहयोगी है । और क्वाड का सदस्य होने बावजुद रूस से तेल ख़रीद रहा है बाइडेन ने कहा कि इस सौदे से भारत-अमेरिका के संबंधों में भरोसा घटेगा ।
क्वाड क्या है ?
क्वाड यानी क्वाडिलैटरल सिक्योरिटी डॉयलॉग में अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया सदस्य हैं। इनमें सेअमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने रूस पर प्रतिबंध लगाए हैं। जबकि, भारत ने रूस पर न तो कोई प्रतिबंध लगायाहै और न ही दुनिया के अन्य देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को फॉलो किया है ।
रूस से तेल खरीदने पर केवल अमेरिका में प्रतिबंध लगे हैं । भारत फिलहाल रूस से तेल खरीद तो सकता है, लेकिन पेमेंट में परेशानी आ सकती है । कुछ एक्सपर्ट का कहना है कि भारत और रूस, रुपए और रूबल में कारोबार के बजाए बार्टर सिस्टम की तर्ज पर कारोबार कर सकते हैं, जैसे ईरान पर प्रतिबंध के दौरान भारत ने किया था । ईरान के साथ प्रतिबंधों के वक्त दोनों देशों ने बार्टर सिस्टम अपनाया था । यानी भारत जितना तेल ईरान से खरीद रहा था, उतनी कीमत का गेहूं, ईरान भारत से खरीद लेता, जिससे पैसों के लेन देन की जरूरत नहीं पड़ती ।
रूस से तेल खरीदने में मुश्किल क्या है?
रूस दुनिया भर में तेल का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। वहीं पहले नंबर पर अमेरिका और दूसरे नंबरपर सऊदी अरब है ।
क्रूड खरीदने से पहले कई पहलुओं का भी ध्यान रखना पड़ता है । जैसे जब हम क्रूड ऑयल मंगाते हैं तो उसे रिफाइन करते हैं । हर जगह का क्रूड ऑयल थोड़ा-थोड़ा अलग होता है । इसके बाद ये देखा जाता है कि इस क्रूड को कहां रिफाइन किया जा सकता है । इसलिए किसी भी देश से तेल खरीदने के दौरान ये पैमाना भी देखा जाता है ।
जैसे खाड़ी देशों से भारत 60% क्रूड ऑयल लेता है । साथ ही समुद्री जहाज से यह तेल सिर्फ 3 दिन केअंदर भारत पहुंच जाता है । इससे किराया भी कम लगता है । वहीं रूस के साथ रूट को लेकर समस्या है, जिसकी बातहम ऊपर कर चुके हैं ।
रूस पर अमेरिका समेत पश्चिमी देशों की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों का असर भी वहां तेल को लाने पर पड़ेगा । इससे आने वाले समय में टैंकर मिलने मुश्किल होंगे, क्योंकि जब टैंकर में करोड़ों रुपए का तेल लाया जाता है तो उसका इंश्योरेंस भी कराना होता है । इन टैंकरों का इंश्योरेंस करने वाली कंपनियां पश्चिमी देशों की हैं । ऐसेमें जब प्रतिबंध लगा होने पर वे टैंकर का इंश्योरेंस नहीं करेंगी । ऐसे में जब रूस सस्ते में तेल देने की बात कर रहा तो यह देखना भी जरूरी है कि ये कितना व्यवहारिक होगा ।
वहीं पिछले 10 वर्षों में भारत ने क्रूड ऑयल के इंपोर्ट में एक देश पर निर्भरता को खत्म करने के लिएकई और देशों से क्रूड खरीदना शुरू किया है। इसमें अमेरिका और रूस भी शामिल हैं। रूस में भारत ने तेल और नैचुरल गैस के क्षेत्र में 16 अरब डॉलर का निवेश किया है, लेकिन वो तेलभारत नहीं खरीदता, दूसरे देशों को बेच देता है ।
रूस से तेल खरीदने से क्या दाम में कमी आएगी?
ऐसे में जब क्रूड ऑयल के दाम में तेजी है तो भारत अपने पारंपरिक निर्यातकों से कह सकता है कि रूसहमें सस्ता तेल दे रहा है, वो भी अपना दाम कम करें । यानी की कीमतों में कुछ बारगेन करें । वहीं रूस से हमें दो चार टैंकर क्रूड ऑयल लाने से फायदा नहीं होगा । न ही इससे दाम में कमी आएगीक्योंकि भारत में 5.2 मिलियन बैरल तेल की खपत रोज होती है । भारत तेल में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है । रूस से भारत एक लाख या दो लाख बैरल तेल मंगवा भी लेता है तो इससे भारत में तेल की कीमतों पर कोई असर नहीं पड़ेगा । अगर रूस वास्तव में हमारा मित्र है और वहां पर तेल इतना ही सस्ता है तो हमे वहां जाकर तेल और गैस के जो भंडार में उनमें हिस्सेदारी खरीदनी चाहिए । अगर रूस सस्ते तेल की पेशकश कर रहा है तो उसे हमें हिस्सेदारी देने में परहेज नहीं करना चहिए भारत ने वहां पहले ही 16 अरब डॉलर के तेल के कुएं खरीद रखे हैं । इस तेल को हम वहीं बेच देते हैं । चूंकि इस समय रूस के तेल के दामों में 40% तक की कमी आ चुकी है । ऐसे में वहां तेल और गैस के भंडारों में हिस्सेदारी खरीदना सस्ता पड़ेगा । साथ ही यह हमारी जरूरतों को लंबे समय के लिए पूरा करेगा । अगर ऐसा हुआ तो आने वाले समय में पेट्रोल डीजल के दामों में हमें कमी देखने को मिल सकती है ।
रूस से गैस आयात पर डेटा
भारत को रूस से 0.20 प्रतिशत गैस आयात प्राप्त होता है। गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (गेल) ने हाल ही मेंएलएनजी के लिए गजप्रोम के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं । इसके तहत 20 साल के लिए सालाना 25 लाख टन आयात करने का समझौता किया गया है। रूस पर संयुक्त राज्यअमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों में तेल और गैस निर्यात पर प्रतिबंध शामिल नहीं है।
इससे कुछ राहत मिलती है, रूस तेल और गैस का निर्यात जारी रखेगा । भारत की ओएनजीसी जैसी कंपनी के तेल की ज्यादातर विदेशी इकाइयां रूस में हैं ।
मोहम्मद सलमान मलिक
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